नवरात्री पर माँ दुर्गा के 9 रूपों का वर्णन एवं तिथि अनुसार: देवी माँ की पूजा और आरती
चैत्र नवरात्रि, जिसे वसंत नवरात्रि के रूप में भी जाना जाता है, नौ दिवसीय हिंदू त्योहार है जो देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा करने के लिए समर्पित है। इस वर्ष, चैत्र नवरात्रि मंगलवार, 9 अप्रैल, 2024 को शुरू होती है और बुधवार, 17 अप्रैल, 2024 को समाप्त होती है।
यहां चैत्र नवरात्रि 2024 के बारे में कुछ मुख्य विवरण दिए गए हैं:
प्रारंभ तिथि: मंगलवार, 9 अप्रैल, 2024
अंतिम तिथि: बुधवार, 17 अप्रैल, 2024
अवधि: नौ दिन
इस शुभ अवधि के दौरान, भक्त उपवास रखते हैं, देवी दुर्गा की पूजा करते हैं और पारंपरिक अनुष्ठानों में भाग लेते हैं। नवरात्रि का प्रत्येक दिन मां दुर्गा के एक अलग रूप का उत्सव मनाता है।
भारत में नवरात्रि एक बड़ा त्योहार है, जिसे बहुत से लोग पसंद करते हैं और मनाते हैं। संस्कृत नामक भाषा में “नवरात्रि” नाम का अर्थ “नौ रातें” है। यह सब हिंदू देवी दुर्गा और उनके नौ अलग-अलग रूपों की पूजा करने के बारे में है: दुर्गा, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री।
नवरात्रि के दौरान देशभर में खूब धार्मिक आयोजन हो रहे हैं। लोग प्रार्थना करने और जश्न मनाने के लिए एक साथ आते हैं।
तिथि अनुसार: देवी माँ का नाम और पूजा
9 अप्रैल 2024: मां शैलपुत्री
10 अप्रैल 2024: मां ब्रह्मचारिणी
11 अप्रैल 2024: मां चंद्रघंटा
12 अप्रैल 2024: मां कुष्मांडा
13 अप्रैल 2024: मां स्कंदमाता
14 अप्रैल 2024: मां कात्यायनी
15 अप्रैल 2024: मां कालरात्रि
16 अप्रैल 2024: मां महागौरी
17 अप्रैल 2024: मां सिद्धिदात्री
चैत्र नवरात्रि भारत में मनाया जाने वाला एक विशेष समय है। यह 9 अप्रैल को शुरू होता है और 17 अप्रैल को समाप्त होता है। इस दौरान लोग देवी दुर्गा और उनके नौ रूपों की पूजा करते हैं, खुशी और स्वास्थ्य जैसी अच्छी चीजों के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अपनी भक्ति दिखाने के लिए उपवास और प्रार्थना भी करते हैं।
माँ दुर्गा हिन्दू धर्म में शक्ति की देवी हैं और उन्हें ब्रह्मांड की सृष्टि, संरक्षण और संहार की अद्वितीय शक्ति माना जाता है। वे शिव की पत्नी हैं और उन्हें पार्वती, अंबिका, और काली के रूपों में भी पूजा जाता है। माँ दुर्गा का आविर्भाव नकारात्मक शक्तियों और असुरों का नाश करने के लिए हुआ था, और इसलिए उन्हें शक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है।
माँ दुर्गा की उपासना
माँ दुर्गा की उपासना भक्ति, मंत्र जाप, यज्ञ, व्रत और नवरात्रि के दौरान विशेष पूजा आदि के माध्यम से की जाती है। नवरात्रि, जो साल में दो बार आती है, माँ दुर्गा की आराधना का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। इस दौरान, नौ दिनों तक नौ देवियों की पूजा होती है, जिनमें माँ दुर्गा के विभिन्न रूप शामिल होते हैं।
माँ दुर्गा के आयुध और प्रतीक
माँ दुर्गा को अक्सर एक सिंह की सवारी करते हुए दिखाया जाता है, जो उनकी शक्ति और साहस का प्रतीक है। उनके पास विभिन्न आयुध होते हैं, जिनमें त्रिशूल, तलवार, चक्र, धनुष और बाण शामिल हैं, जो उनके विभिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
माँ दुर्गा की महत्वपूर्ण कथाएँ
माँ दुर्गा की महत्वपूर्ण कथाओं में से एक है महिषासुर मर्दिनी की कथा, जिसमें वे महिषासुर नामक एक असुर का वध करती हैं। इस विजय को चिह्नित करने के लिए हर साल दुर्गा पूजा मनाई जाती है।
माँ दुर्गा की भक्ति उनके भक्तों को बल, साहस, और संरक्षण प्रदान करती है और उनके जीवन में सकारात्मकता लाती है।
माँ दुर्गा की कथाएं उनकी शक्ति, करुणा और असुरों के विनाश के बारे में हैं, जो हिन्दू धर्म में उनके महत्व को दर्शाती हैं। यहाँ उनकी कुछ प्रमुख कथाएँ दी गई हैं:
1. माता शैलपुत्री
मां शैलपुत्री, हिन्दू धर्म में देवी दुर्गा के नवदुर्गा स्वरूपों में प्रथम स्वरूप हैं। “शैल” का अर्थ होता है पर्वत, और “पुत्री” का अर्थ है पुत्री, अर्थात् पर्वत की पुत्री। इस प्रकार, शैलपुत्री का अर्थ होता है हिमालय पर्वत की पुत्री। इन्हें हिमालय और मेना की पुत्री के रूप में जाना जाता है। देवी शैलपुत्री को नवरात्रि के पहले दिन पूजा जाता है।
मां शैलपुत्री का स्वरूप अत्यंत शांत और सौम्य होता है। इनका वाहन बैल होता है, जिसके कारण इन्हें वृषभवाहिनी भी कहा जाता है। इनके दो हाथ होते हैं, जिनमें एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल का फूल होता है।
देवी शैलपुत्री की पूजा करने से भक्तों को उनके जीवन की सभी बाधाओं से मुक्ति मिलती है और वह स्वस्थ और समृद्धि का जीवन जीते हैं। यह देवी शक्ति की उस मूल भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो सृजन और उत्थान का स्रोत है।
माता शैलपुत्री की कथा
कथा के अनुसार, माता शैलपुत्री पिछले जन्म में सती थीं, जिन्होंने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपने पति भगवान शिव का अपमान न सह सकने के कारण आत्मदाह कर लिया था। अगले जन्म में वे हिमालय पर्वत की पुत्री के रूप में जन्मीं और फिर से शिव को अपना पति बनाने के लिए कठिन तपस्या की। इस तपस्या के फलस्वरूप, भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। इस तरह, माता शैलपुत्री को भक्ति और मोक्ष की देवी के रूप में पूजा जाता है।
माता शैलपुत्री की आरती
जय शैलपुत्री माँ जय शैलपुत्री।
हमें आशीष दो माँ, हमें आशीष दो।।
तुम्हें प्रणाम करें, तुम्हारी आराधना।
अपने चरणों में माँ, रखो हमको अपना।।
जय शैलपुत्री माँ…
तुम जगत जननी हो, सबकी माँ कहलाई।
दुःख दरिद्र मिटाओ, सुख सम्पत्ति दिलाई।।
जय शैलपुत्री माँ…
हे गिरिराज किशोरी, अम्बे भवानी।
तेरी शरण में आये, हो जाये कल्याणी।।
जय शैलपुत्री माँ…
तुम्हारी जय हो माता, तुम्हारी जय हो।
हमें आशीष दो माँ, हमें आशीष दो।।
जय शैलपुत्री माँ…
आरती के माध्यम से भक्त अपनी श्रद्धा और भक्ति की अभिव्यक्ति करते हैं, और माता शैलपुत्री से आशीर्वाद और संरक्षण की कामना करते हैं।
2. मां ब्रह्मचारिणी
मां ब्रह्मचारिणी, नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में दूसरे स्थान पर आती हैं। “ब्रह्म” का अर्थ है तपस्या, और “चारिणी” का अर्थ है आचरण करने वाली, इस प्रकार “ब्रह्मचारिणी” का अर्थ होता है तपस्या में लीन रहने वाली। देवी ब्रह्मचारिणी अपार तपस्या, साधना और संयम की प्रतीक हैं। इन्हें नवरात्रि के दूसरे दिन पूजा जाता है।
मां ब्रह्मचारिणी का स्वरूप अत्यंत शांतिपूर्ण और उज्ज्वल है। उनका वस्त्र सफेद होता है, जो शांति, पवित्रता और सादगी का प्रतीक है। उनके दो हाथ होते हैं, जिनमें एक हाथ में जप की माला (रुद्राक्ष) होती है और दूसरे हाथ में कमंडल होता है।
देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा से भक्तों को अत्यधिक तप, त्याग, संयम, निष्ठा और धैर्य की प्रेरणा मिलती है। यह उन भक्तों को विशेष रूप से लाभान्वित करती हैं जो जीवन में किसी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना और तपस्या में लीन हैं। मान्यता है कि उनकी उपासना से भक्तों को अद्भुत शक्ति, योग साधना में सफलता और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए, देवी ब्रह्मचारिणी को योग और तपस्या की देवी भी कहा जाता है।
मां ब्रह्मचारिणी की कथा
कथा के अनुसार, माँ पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी। उन्होंने कठोर व्रत और नियमों का पालन करते हुए, सालों तक केवल फल और पत्तियों पर जीवन यापन किया। उनकी इस अद्भुत तपस्या के कारण, उन्हें “तपचारिणी” और “ब्रह्मचारिणी” के नाम से जाना जाने लगा। उनकी इस अद्वितीय भक्ति और तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी स्वीकार किया।
मां ब्रह्मचारिणी की आरती
जय ब्रह्मचारिणी माँ, जय तपश्विनी।
तुम्हें सदा पूजें, हर श्रद्धा भक्त हृदय सिनी।।
जय ब्रह्मचारिणी माँ…
तुम्हारी तपस्या से, सबके दुख हरे।
जो कोई ध्यावे तुम्हें, सुख सम्पत्ति से भरे।।
जय ब्रह्मचारिणी माँ…
तुम्हें जो भक्ति दे, और नित्य ध्यान लगाये।
उसके जीवन में माँ, सुख की राहें आये।।
जय ब्रह्मचारिणी माँ…
तुम बिन ज्ञान न हो, तुम बिन तप न हो।
तुम बिन धर्म न हो, राह दिखाओ माँ हमको।।
जय ब्रह्मचारिणी माँ…
मां ब्रह्मचारिणी की आरती भक्तों को उनकी अदम्य तपस्या, दृढ़ संकल्प और अनन्य भक्ति की याद दिलाती है। उनकी आराधना से भक्तों में वैराग्य, तप और आत्मनिर्भरता के गुण विकसित होते हैं।
3. मां चंद्रघंटा
मां चंद्रघंटा नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में तीसरे स्थान पर आती हैं। “चंद्र” का अर्थ है चाँद, और “घंटा” का अर्थ है घंटी, अर्थात् जिनके मस्तक पर चंद्रमा के आकार की घंटी होती है। इस देवी को चंद्रघंटा कहा जाता है क्योंकि उनके माथे पर आधा चंद्रमा (जो घंटी के आकार का होता है) सुशोभित होता है। उन्हें नवरात्रि के तीसरे दिन पूजा जाता है।
मां चंद्रघंटा का स्वरूप शांति और कल्याण की प्रतीक है। इनके दस हाथ होते हैं और इन्हें विभिन्न आयुध धारण किए हुए दर्शाया जाता है, जो अधर्म, अन्याय और बुराइयों के विनाश का प्रतीक हैं। उनका वाहन सिंह है, जो शक्ति और साहस का प्रतीक है।
देवी चंद्रघंटा की उपासना से भक्तों को शांति, कृपा और साहस प्राप्त होता है। उनकी आराधना से सभी प्रकार के भय, चिंता और विघ्न दूर होते हैं। मान्यता है कि उनकी कृपा से भक्तों को निडरता और आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है, और उनके जीवन में शांति और समृद्धि आती है।
मां चंद्रघंटा की पूजा से योगी और साधकों को भी अद्भुत लाभ मिलता है, क्योंकि उनकी साधना से आज्ञा चक्र (जिसे तीसरी आँख भी कहा जाता है) का उद्घाटन होता है, जो अध्यात्मिक जगत में गहराई तक जाने की क्षमता प्रदान करता है। इसलिए, उनकी उपासना से न केवल भौतिक लाभ होते हैं बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी होती है।
मां चंद्रघंटा की कथा
कथा के अनुसार, मां चंद्रघंटा शक्ति का वह स्वरूप हैं जिन्होंने देवी पार्वती के रूप में भगवान शिव से विवाह के बाद इस रूप को धारण किया। विवाह के समय, जब भगवान शिव विचित्र वेशभूषा में पार्वती के घर पहुंचे, तो वहां उपस्थित सभी लोग विचलित हो गए। इस परिस्थिति में देवी पार्वती ने चंद्रघंटा रूप धारण किया और सभी को आश्वासन दिया कि सब कुछ शुभ होगा। इस प्रकार, उन्होंने न केवल अपने पारिवारिक सदस्यों को संबल प्रदान किया, बल्कि अपने भक्तों को भी आश्वासन दिया कि वह सदैव उनकी रक्षा करेंगी।
मां चंद्रघंटा की आरती
जय माँ चंद्रघंटा तेरी जय हो विजयी।
सब दुखों को हरने वाली, तेरी जय हो अजेय।।
जय माँ चंद्रघंटा…
तेरा स्वरूप शिवशंकरी, ज्ञान का भंडार।
तेरी जय हो जगदम्बे, भक्तों का उद्धार।।
जय माँ चंद्रघंटा…
कमला तू है जग की माता, कमलानी है दुःख हरता।
सुख सम्पत्ति दाता।।
जय माँ चंद्रघंटा…
चंद्रघंटा तेरी आरती, जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे।।
जय माँ चंद्रघंटा…
4. मां कुष्मांडा
मां कुष्मांडा नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में चौथे स्थान पर आती हैं। “कुष्मांडा” शब्द का अर्थ होता है कुम्हड़ा। यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि माना जाता है कि देवी कुष्मांडा ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय एक कुम्हड़े के रूप में मुस्कुराकर इस सृष्टि को उत्पन्न किया था। देवी कुष्मांडा को ब्रह्मांड की रचयिता और सृष्टि की संरक्षक माना जाता है। उन्हें नवरात्रि के चौथे दिन पूजा जाता है।
देवी कुष्मांडा का स्वरूप अत्यंत तेजस्वी और दिव्य होता है। उनके आठ हाथ होते हैं, जिनमें वे विभिन्न आयुध धारण करती हैं जैसे कि त्रिशूल, चक्र, गदा, कमल, धनुष-बाण, कलश (अमृत से भरा हुआ), और जप की माला। उनका वाहन सिंह है, जो उनकी शक्ति और साहस का प्रतीक है।
देवी कुष्मांडा की उपासना से भक्तों को उनके जीवन में स्वास्थ्य, समृद्धि, शक्ति, और दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। उनकी कृपा से भक्तों के जीवन में सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जाएं दूर होती हैं और सकारात्मकता का वातावरण बनता है। देवी कुष्मांडा की आराधना से सृष्टि के सूक्ष्म रहस्यों की समझ भी विकसित होती है, और भक्त आत्मिक शांति और आनंद का अनुभव करते हैं।
मां कुष्मांडा की कथा
कथा के अनुसार, जब सम्पूर्ण ब्रह्मांड में केवल अंधकार था, तब मां कुष्मांडा ने अपनी मुस्कान से सृष्टि की रचना की। उनकी इस दिव्य मुस्कान ने ब्रह्मांड को प्रकाशित किया और जीवन की संभावनाओं को जन्म दिया। देवी का यह स्वरूप अष्टभुजाधारी है, और वह सिंह पर सवार होकर विभिन्न प्रकार के आयुध धारण करती हैं।
मां कुष्मांडा की आरती
जय माँ कुष्मांडा माता।
भक्तों के दुख हरता, जग की विधाता।।
जय माँ कुष्मांडा…
सृष्टि की उत्पत्ति में तुमने, महान भूमिका निभाई।
मुस्कान से तुमने माता, ब्रह्मांड को सजाई।।
जय माँ कुष्मांडा…
अष्टभुजा तू है माता, सबके मन को भाता।
सिंह पर है तेरी सवारी, सब पीड़ा है हरता।।
जय माँ कुष्मांडा…
तेरी कृपा से माता, भक्त को सुख मिलता।
तेरी भक्ति में माता, मन ये अति तृप्त होता।।
जय माँ कुष्मांडा…
तू है दुर्गा, काली, महाकाली की माता।
सब पीड़ा हरने वाली, जग की पालनहारा।।
जय माँ कुष्मांडा
5. मां स्कंदमाता
मां स्कंदमाता नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में पांचवें स्थान पर आती हैं। इनकी पूजा नवरात्रि के पांचवें दिन की जाती है। “स्कंद” भगवान कार्तिकेय का एक नाम है, जो देवी पार्वती और भगवान शिव के पुत्र हैं, और “माता” का अर्थ है माँ, इस प्रकार “स्कंदमाता” का अर्थ है कार्तिकेय की माँ।
मां स्कंदमाता की उपासना से भक्तों को उनके पुत्र की भांति आशीर्वाद मिलता है और वे सभी प्रकार की विपत्तियों और बाधाओं से मुक्त होते हैं। इन्हें अपार करुणा और ममता की प्रतिमूर्ति माना जाता है।
मां स्कंदमाता का स्वरूप बहुत ही शांत और सौम्य है। इनके चार हाथ होते हैं; ऊपरी दो हाथों में कमल के फूल होते हैं, और निचले हाथों में से एक में वे अपने पुत्र स्कंद को गोद में उठाए होती हैं, जबकि दूसरे हाथ से अभय मुद्रा (आशीर्वाद) देती हैं। इनका वाहन सिंह होता है।
देवी स्कंदमाता की पूजा करने से भक्तों को उनकी संतान के स्वास्थ्य और कल्याण का वरदान मिलता है, साथ ही भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। उनकी साधना से भक्तों को मानसिक शांति और आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।
मां स्कंदमाता की कथा
नवरात्रि के पांचवे दिन, भक्तगण मां स्कंदमाता की पूजा करते हैं। मां स्कंदमाता, भगवान कार्तिकेय या स्कंद की माता हैं, जो देवसेना के सेनापति हैं। मां स्कंदमाता की उपासना से भक्तों को पुत्र और आत्मिक शक्ति की प्राप्ति होती है। उन्हें एक सौम्य और करुणामयी मां के रूप में देखा जाता है, जो अपने भक्तों के दुःख-दर्द को दूर करती हैं।
देवी स्कंदमाता चार भुजाओं वाली हैं, जिनमें से दो हाथों में वे अपने पुत्र स्कंद (भगवान कार्तिकेय) को धारण करती हैं, एक हाथ में कमल का फूल होता है और दूसरे हाथ से वरदान देती हैं। उनकी उपासना करने वाले भक्तों को अपार शांति और सुख की प्राप्ति होती है।
मां स्कंदमाता की आरती
जय तेरी हो स्कंद माता,
पांचवां नाम तुम्हारा आता।
सबके मन की जाननहारी,
जगजननी सबकी महतारी।
तेरी जोत जलती रहे आज,
हमें दे दे दाना दाना।
भक्ति का दान दे दे माता,
ज्ञान का दान दे दे माता।
तू है देवी देवों की देवी,
तू ही दुर्गा सप्तशती की देवी।
करते हैं हम सब तेरी आरती,
सबकी कर दो नैया पार।
जय तेरी हो स्कंद माता,
पांचवां नाम तुम्हारा आता।
सबके मन की जाननहारी,
जगजननी सबकी महतारी।
यह आरती मां स्कंदमाता के भक्तों द्वारा उनकी पूजा के दौरान गाई जाती है, जिससे माता की कृपा उन पर सदैव बनी रहे।
6. मां कात्यायनी
मां कात्यायनी नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में छठे स्थान पर आती हैं और इनकी पूजा नवरात्रि के छठे दिन की जाती है। देवी कात्यायनी का जन्म महर्षि कात्यायन के आश्रम में हुआ था, इसी कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा। महर्षि कात्यायन ने इनकी आराधना की थी, इसलिए देवी ने उनके नाम से जानी जाने वाली इस दिव्य शक्ति को धारण किया।
मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत विशाल और भव्य होता है। ये चार हाथों वाली देवी हैं, जिनके एक हाथ में कमल का फूल, दूसरे हाथ में तलवार, तीसरे हाथ में वरद मुद्रा (आशीर्वाद देने वाला हाथ) और चौथे हाथ में अभय मुद्रा (भय निवारण करने वाला हाथ) होता है। उनका वाहन सिंह है, जो उनकी शक्ति और साहस को दर्शाता है।
देवी कात्यायनी की उपासना से भक्तों को उनकी सभी समस्याओं से मुक्ति मिलती है। विशेष रूप से अविवाहित युवतियां अपने लिए योग्य वर पाने की कामना से मां कात्यायनी की आराधना करती हैं। मान्यता है कि मां कात्यायनी की पूजा से विवाह में आ रही बाधाएं दूर होती हैं और जीवन में सुख-शांति आती है।
मां कात्यायनी की आराधना भक्तों को अदम्य साहस, शक्ति और विजय प्रदान करती है। उनकी कृपा से भक्तों के जीवन से सभी प्रकार के दुःख, दरिद्रता और विघ्न दूर होते हैं।
मां कात्यायनी की कथा
कथा के अनुसार, देवताओं को पराजित करने के बाद, महिषासुर ने स्वर्ग और पृथ्वी पर अत्याचार शुरू कर दिया। देवताओं ने महर्षि कात्यायन के आश्रम में शरण ली, जहाँ देवी ने महर्षि कात्यायन के यहाँ जन्म लिया। उन्होंने महिषासुर से युद्ध किया और उसे पराजित किया, जिससे देवताओं और मानवता को उसके अत्याचार से मुक्ति मिली।
मां कात्यायनी की आरती
जय कात्यायनी माँ भवानी।
जय हो तेरी जयकार महारानी।।
जय कात्यायनी माँ…
तेरा वाहन वृषभ है माता, भक्तों के सुख की दाता।
स्वर्ण आभूषण तेरे शोभित, मुखड़े पर ज्योति तेरी साता।।
जय कात्यायनी माँ…
तू है दुर्गा, तू है भवानी, कात्यायन की बेटी महारानी।
महिषासुर संहार करने वाली, सबके दुख हरने वाली।।
जय कात्यायनी माँ…
भक्तों के दुख दूर करने वाली, मन वांछित फल देने वाली।
करते हैं हम आरती तेरी, करो माँ हम पर कृपा तेरी।।
जय कात्यायनी माँ…
मां कात्यायनी की आरती उनके भक्तों द्वारा श्रद्धा और भक्ति के साथ गाई जाती है, जिससे देवी की कृपा उन पर बनी रहे।
8. मां कालरात्रि
मां कालरात्रि, नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में से सातवें स्थान पर आती हैं। नवरात्रि के सातवें दिन देवी कालरात्रि की पूजा की जाती है। इनका स्वरूप भक्तों के लिए संकटों और नकारात्मक शक्तियों का नाश करने वाला माना जाता है। उनका नाम “कालरात्रि” इसलिए पड़ा क्योंकि वे काल (समय या मृत्यु) की रात का प्रतिनिधित्व करती हैं, और अपने भक्तों को भय, परेशानी और नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त करती हैं।
मां कालरात्रि का रूप अत्यंत भयानक होता है, लेकिन वह अपने भक्तों के लिए सदैव कल्याणकारी होती हैं। उनका वर्ण घोर अंधकार जैसा काला है, और उनके तीन नेत्र और चार हाथ होते हैं। उनका एक हाथ अभय मुद्रा में होता है, जो भक्तों को निर्भयता प्रदान करता है, और दूसरा हाथ वरद मुद्रा में होता है, जो कल्याण का प्रतीक है। बाकी के दो हाथों में वे क्रमशः खड्ग (तलवार) और वज्र (दामिनी) धारण करती हैं। उनका वाहन गर्दभ (गधा) होता है।
मां कालरात्रि की पूजा से भक्तों के सभी भय, चिंताएं और नकारात्मक प्रभाव समाप्त होते हैं। वे अपने भक्तों को साहस, शक्ति और निडरता प्रदान करती हैं। यह मान्यता है कि उनकी उपासना से भूत-प्रेत, जादू-टोना और नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता है। देवी कालरात्रि अपने भक्तों को उनके जीवन पथ पर सुरक्षा और सफलता प्रदान करती हैं।
मां कालरात्रि की कथा
कथा के अनुसार, देवी दुर्गा ने रक्तबीज, एक ऐसे दानव का संहार करने के लिए कालरात्रि का रूप धारण किया, जिसकी हर बूंद से उसकी एक नई प्रतिकृति उत्पन्न हो जाती थी। मां कालरात्रि ने अपनी जिह्वा से रक्त की हर बूंद को सोख लिया और रक्तबीज का वध किया। उनका यह कार्य बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
मां कालरात्रि की आरती
जय कालरात्रि माँ, जय जय महाकाली।
सब भय हरो माँ, तुम गंभीर विकराली।।
जय कालरात्रि माँ…
काली जवासा, शव पर सवारी।
विकराल रूप, है भयकारी।
श्मशान की तुम, देवी महारानी।
असुरों का संहार करने वाली।।
जय कालरात्रि माँ…
तुम बिन सुख नहीं, आरती तेरी।
करें हम भक्ति, माँ तुम्हारी।
दूर करो माँ, सबकी बाधाएँ।
सुख-समृद्धि दो, माँ आज्ञा मानें।।
जय कालरात्रि माँ…
देवी तुम महाकाली, आदि शक्ति हो।
सबके मन की जानती, तुम अक्षय शक्ति हो।
हम पर कृपा करो माँ, अपनी भक्ति दो।
सब दुख दूर करो माँ, अपने चरणों में लो।।
जय कालरात्रि माँ…
मां कालरात्रि की आरती के माध्यम से भक्त देवी की विकराल लेकिन आशीर्वाद स्वरूप शक्तियों का स्मरण करते हैं और उनसे अपने जीवन से नकारात्मकता और भय को दूर करने की प्रार्थना करते हैं।
8. मां महागौरी
मां महागौरी नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में आठवें स्थान पर आती हैं। नवरात्रि के आठवें दिन, देवी महागौरी की पूजा की जाती है। महागौरी का अर्थ है अत्यंत उज्ज्वल या श्वेत वर्ण की देवी। उनकी पवित्रता, शांति और शुद्धता के प्रतीक के रूप में पूजा की जाती है।
देवी महागौरी की उम्र आठ वर्ष की बालिका के समान बताई जाती है। उनका रूप अत्यंत शांत और सौम्य है। उनका वर्ण श्वेत है और वे सफेद वस्त्र धारण करती हैं। देवी महागौरी के चार हाथ होते हैं। उनका ऊपरी दायाँ हाथ वरमुद्रा में होता है और निचला दायाँ हाथ त्रिशूल धारण किए हुए होता है। उनका ऊपरी बायाँ हाथ डमरू धारण किए हुए होता है और निचला बायाँ हाथ अभयमुद्रा में होता है। उनका वाहन वृषभ (बैल) है।
मां महागौरी की पूजा करने से भक्तों के सभी पाप, दोष और विघ्न दूर होते हैं। वे अपने भक्तों को आंतरिक शांति, पवित्रता और आत्मिक उन्नति का आशीर्वाद प्रदान करती हैं। उनकी साधना से भक्तों को मनवांछित फल की प्राप्ति होती है और जीवन में शुद्धता और नैतिक मूल्यों का संवर्धन होता है।
मां महागौरी की कथा
कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि उनका शरीर मिट्टी और पत्तों से ढक गया और उनका रंग बदल गया। जब भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन दिए, तब उन्होंने पार्वती को गंगा जल से स्नान कराया। इस स्नान से देवी पार्वती का रंग अत्यंत उज्ज्वल और श्वेत हो गया, जिससे वे ‘महागौरी’ के नाम से जानी जाने लगीं।
मां महागौरी की आरती
जय महागौरी माता,
जय महागौरी माता।
ब्रह्मा सनातन देवी,
शुभ फल कीदाता।।
जय महागौरी माता…
वृषभ धवजा तुम्हारी, श्वेत अंबर धारे।
हेम मुकुट विराजे, माँ तुम सबसे न्यारे।।
जय महागौरी माता…
उमा, रुद्राणी आदि, कई नाम तुम्हारे।
हाथ जोड़ विनती करूं, सुन लो मेरे पुकारे।।
जय महागौरी माता…
दुःख, दारिद्र, भय, हरो, ताप निवारणी।
सुख, सम्पत्ति दायिनी, शुभघड़ी लाने वाली।।
जय महागौरी माता…
कहत ‘दास’ आरती, जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख सम्पत्ति पावे।।
जय महागौरी माता…
मां महागौरी की आरती के माध्यम से भक्त उनकी अनुकंपा, शक्ति और पवित्रता की प्रार्थना करते हैं, और उनसे अपने जीवन में सुख, समृद्धि, और शांति प्रदान करने की विनती करते हैं।
9. मां सिद्धिदात्री
मां सिद्धिदात्री नवदुर्गा के नौ स्वरूपों में अंतिम और नौवीं देवी हैं। नवरात्रि के नौवें और अंतिम दिन इनकी पूजा की जाती है। “सिद्धिदात्री” शब्द का अर्थ है ‘सिद्धियों को प्रदान करने वाली देवी’। मान्यता है कि देवी सिद्धिदात्री की उपासना से सभी प्रकार की सिद्धियाँ और निष्काम कामनाएँ पूर्ण होती हैं।
मां सिद्धिदात्री का स्वरूप अत्यंत दिव्य और सौम्य होता है। उनके चार हाथ होते हैं, जिनमें वे गदा, चक्र, शंख और कमल धारण करती हैं। उनकी आसनी सिंह है, जो उनकी शक्ति और दृढ़ता को दर्शाता है। देवी सिद्धिदात्री सभी देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और साधकों को आशीर्वाद देने वाली हैं।
यह कहा जाता है कि भगवान शिव ने भी मां सिद्धिदात्री की आराधना की थी, जिससे उन्हें सभी सिद्धियाँ प्राप्त हुईं और इस प्रकार उन्हें ‘अर्धनारीश्वर’ का रूप प्राप्त हुआ।
मां सिद्धिदात्री की पूजा करने से भक्तों को आत्मिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है, और उनके जीवन से सभी बाधाएँ और संशय दूर होते हैं। उनकी उपासना से सभी प्रकार की सिद्धियाँ, जैसे कि अन्न, धन, ज्ञान, और स्वास्थ्य, प्राप्त होती हैं।
मां सिद्धिदात्री की कथा
मां सिद्धिदात्री नवदुर्गा की नौवीं और अंतिम शक्ति हैं, जिनकी पूजा नवरात्रि के नवमी दिन की जाती है। “सिद्धिदात्री” शब्द का अर्थ होता है, वह देवी जो सिद्धियां प्रदान करती हैं। यह देवी सभी प्रकार की सिद्धियां और निर्वाण प्रदान करती हैं। भगवान शिव ने भी मां सिद्धिदात्री की उपासना की थी, जिसके प्रभाव से उन्हें अर्धनारीश्वर का रूप प्राप्त हुआ था।
देवी सिद्धिदात्री की उपासना से साधक को आठों सिद्धियाँ (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, और वशित्व) प्राप्त होती हैं। इसलिए, उन्हें सिद्धियों की देवी कहा जाता है।
मां सिद्धिदात्री की आरती
जय सिद्धिदात्री माँ जय सिद्धिदात्री।
सुख सम्पत्ति दाता जो कोई ध्याता॥
जय सिद्धिदात्री माँ जय सिद्धिदात्री।
अर्धनारीश्वर शिव शंकर की प्यारी।
शरण तुम्हारी आया वह सबसे भारी॥
जय सिद्धिदात्री माँ जय सिद्धिदात्री।
चौसठ योगिनी गावत नृत्य करत भैरू।
बाजत ताल मृदंगा अरु बाजत डमरू॥
जय सिद्धिदात्री माँ जय सिद्धिदात्री।
तुम सिद्धि दात्री माँ सबके मन भाती।
दो मनोरथ सबके पूरण करो माँ आज॥
जय सिद्धिदात्री माँ जय सिद्धिदात्री।
मां सिद्धिदात्री की आरती के माध्यम से भक्तों को न केवल आध्यात्मिक और भौतिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, बल्कि जीवन में संपूर्णता और संतुलन का अनुभव भी होता है।
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